अमूल के 75 साल: जानें अमूल के प्रोडक्ट्स का किसानों से कंज्यूमर तक पहुंचने का सफर
नई दिल्ली17 मिनट पहले
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अमूल की कहानी सिर्फ एक एंटरप्राइज या बिजनेस के को-ऑपरेटिव मॉडल की सक्सेस स्टोरी नहीं है। यह भारत की सफलता की कहानी है। भारत की सबसे बड़ी FMCG कंपनी, जिसके मालिक लाखों किसान है। गुजरात के दो गांव से 75 साल पहले 247 लीटर दूध से शुरू हुआ सफर आज 260 लाख लीटर पर पहुंच गया है।
अमूल की शुरुआत गुजरात के आणंद से ही हुई थी
अमूल ने इन 75 सालों में जो कुछ हासिल किया है शायद ही इसका कोई और उदाहरण देखने को मिलता है। इसने किसान परिवारों के सोश्यो इकोनॉमिक इंडिकेटर्स को पूरी तरह से बदल दिया। ऐसे में हम आपको बताने जा रहे हैं अमूल का वो मॉडल जिसने उसे सक्सेस दिलाई। साथ ही ये भी बताएंगे कि अमूल फ्रेशनेस को मेंटेन करते हुए अपने प्रोडक्ट्स को कंज्यूमर तक कैसे पहुंचता हैं?
अमूल का मॉडल तीन लेवल पर काम करता है:
1. डेयरी को-ऑपरेटिव सोसाइटी
2. डिस्ट्रिक्ट मिल्क यूनियन
3. स्टेट मिल्क फेडरेशन
- दूध का उत्पादन करने वाले गांव के सभी किसान डेयरी को-ऑपरेटिव सोसाइटी के मेंबर होते हैं। ये मेंबर रिप्रजेंटेटिव्स को चुनते हैं जो मिलकर डिस्ट्रिक्ट मिल्क यूनियन को मैनेज करते हैं।
- डिस्ट्रिक्ट यूनियन मिल्क और मिल्क प्रोडक्ट की प्रोसेसिंग करती है। प्रोसेसिंग के बाद इन प्रोडक्ट्स को गुजरात को-ऑपरेटिव मिल्क मार्केटिंग फेडरेशन लिमिटेड डिस्ट्रीब्यूटर की तरह काम कर मार्केट तक पहुंचाता है।
- सप्लाई चेन को मैनेज करने के लिए प्रोफेशनल्स को हायर किया जाता है। दूध के कलेक्शन, प्रोसेसिंग और डिस्ट्रीब्यूशन में डायरेक्ट-इनडायरेक्ट रूप से करीब 15 लाख लोगों को रोजगार मिलता है।
- अमूल का मॉडल बिजनेस स्कूल्स में केस स्टडी बन गया है। इस मॉडल में डेयरी किसानों के कंट्रोल में रहती है। यह मॉडल दिखाता है कि कैसे प्रॉफिट पिरामिड के सबसे निचले हिस्से तक पहुंचता है।
हर एक रुपए में से करीब 86 पैसे उसके मेंबर को जाते हैं और को-ऑपरेटिव बिजनेस चलाने के लिए 14 पैसे रखे जाते हैं।
लाखों लीटर दूध कैसे इकट्ठा होता है?
- गुजरात के 33 जिलों में 18,600 मिल्क को-ऑपरेटिव सोसाइटीज और 18 डिस्ट्रिक्ट यूनियन है। इन सोसाइटीज से 36 लाख से ज्यादा किसान जुड़े हैं जो दूध का उत्पादन करते हैं।
- दूध को इकट्ठा करने के लिए सुबह 5 बजे से ही चहल-पहल शुरू हो जाती है। किसान मवेशियों का दूध निकालते हैं और केन्स में भरते हैं। इसके बाद दूध को कलेक्शन सेंटर पर लाया जाता है।
- सुबह करीब 7 बजे तक कलेक्शन सेंटर पर किसानों की लंबी लाइन लग जाती है। सोसाइटी वर्कर दूध की मात्रा को नापते हैं और फैट कंटेंट भी नापा जाता है। ये सिस्टम पूरी तरह से ऑटोमेटेड होता है।
- हर किसान के दूध के आउटपुट को कंप्यूटर में सेव किया जाता है। किसानों की आमदनी दूध की मात्रा और फैट कंटेंट पर निर्भर करती है। किसानों को हर महीने एक निश्चित तारीख पर पेमेंट किया जाता है।
- किसानों के लिए एक एप भी बनाया गया है जिसमें उन्हें दूध की मात्रा और फैट से लेकर पेमेंट की जानकारी मिलती हैं। पेमेंट सीधे किसानों के बैंक अकाउंट में ट्रांसफर किया जाता है।
मवेशियों का दूध केन्स में भरने के बाद कलेक्शन सेंटर पहुंचाया जाता है
दूध की प्रोसेसिंग कैसे होती है?
- कलेक्शन सेंटर पर दूध को टैंकर्स में भरा जाता है और प्रोसेसिंग प्लांट तक पहुंचाया जाता है। हर एक टैंकर में 25 हजार लीटर से ज्यादा दूध होता है। प्रोसेसिंग प्लांट में टैंकर सुबह करीब 11 बजे आना शुरू होते हैं और रात तक ये सफर जारी रहता है।
- दूध को स्टोर करने में गलती हो जाए तो ये खराब हो सकता है। इसलिए दूध को प्रोसेसिंग प्लांट तक सुरक्षित पहुंचाने के लिए डेयरी कोऑपरेटिव्स ने सिस्टम बनाया है।
- अगर कोई टैंकर प्रोसेसिंग प्लांट तक पहुंचने के दौरान खराब हो जाता है तो दूध को सुरक्षित रखने के लिए तत्काल नया टैंकर भेजा जाता है और दूध को नए टैंकर में ट्रांसफर कर प्रोसेसिंग प्लांट तक पहुंचाया जाता है।
- जो भी दूध प्रोसेसिंग प्लांट में आता है उसकी सबसे पहले क्वालिटी जांच होती है। क्वालिटी क्लीयरेंस के बाद उसे खाली किया जाता है। फिर दूध को अलग-अलग प्रोडक्ट बनाने के लिए प्रोसेस किया जाता है।
- कच्चे दूध को पीने लायक बनाने के लिए पॉश्चुराइज और स्टरलाइज किया जाता है। पॉश्चुराइजेशन प्रोसेस में दूध को स्टील पाइप से 76 डिग्री सेल्सियस टेंपरेचर पर 15 सेकेंड के लिए गुजारा जाता है। फिर तापमान को घटाकर 4 डिग्री पर लाया जाता है।
- अब पाश्चुराइज मिल्क पैकेजिंग एरिया की तरफ बढ़ता है, जहां दूध को पॉली पैक्स में भरा जाता है। यहां मशीन हर मिनट में 150 पाउच बनाती है। अब इन पाउच को ट्रक्स में लोड किया जाता है और बाजारों में भेज दिया जाता है।
- दूसरे राज्यों के लोगों को भी फ्रेश प्रोडक्ट मिल सके इसके लिए वहां भी को-ऑपरेटिव्स ने प्रोसेसिंग प्लांट लगाए हैं। इन प्लांट्स के लिए गुजरात से दूध को स्पेशलाइज्ड मिल्क ट्रेन और टैंकरों के जरिए भेजा जाता है।
- 36 घंटे तक ये दूध ठंडा बना रहता है और खराब नहीं होता, क्योंकि दूध को पॉश्चुराइज करके भेजा जाता है। पॉश्चुराइजेशन प्रोसेस से हार्मफुल बैक्टीरिया को खत्म करने में मदद मिलती है।
- प्रोसेसिंग प्लांट में अलग-अलग प्रोडक्ट को बनाने के लिए अलग-अलग यूनिट है। कुछ यूनिट में लिक्विड मिल्क, पनीर, दही, घी, बटर मिल्क और ड्राई पाउडर बनता है तो कुछ यूनिट ट्रेट्रा पैक्स को प्रोसेस करती है। आइसक्रीम, बटर और चीज भी बनाया जाता है।
कलेक्शन सेंटर पर दूध को टैंकर्स में भरा जाता है और प्रोसेसिंग प्लांट तक पहुंचाया जाता है
अमूल अपने प्रोडक्ट की मार्केटिंग कैसे करता है?
- अमूल की सबसे पहली मार्केटिंग स्ट्रेटेजी है उसकी ब्रांडिंग। अपने अलग-अलग प्रोडक्ट को अमूल एक ही अंब्रेला के नीचे मार्केट करता है। इससे उसकी प्रमोशन की कॉस्ट काफी कम हो जाती है।
- अमूल प्रोडक्ट प्राइसिंग पर काफी ध्यान देता है। अमूल की मेन टारगेट ऑडियंस मिडल और इकोनॉमिक क्लास है। इसलिए जिन प्रोडक्ट्स का रेगुलर कंजंप्शन होता है उसकी कॉस्ट को कम रखा जाता है, ताकि टारगेट ऑडियंस इसे आसानी से अफोर्ड कर सके।
- अमूल अपने यूनीक एडवरटाइजमेंट के लिए जाना जाता है। अमूल गर्ल का पहला विज्ञापन 1966 में आया। ये दुनिया का सबसे लंबा चलने वाला एड कैंपेन है। सोशल मीडिया पर दिखने वाले अमूल के ज्यादातर एड करंट न्यूज से जुड़े होते हैं।
- अमूल रिटेल काउंटर को देश भर में लगातार बढ़ा रहा है। जिन भी राज्यों में अमूल का मार्केट शेयर कम है वो उन राज्यों में पहुंच रहा है और अपने मार्केट को बढ़ा रहा है।
- अमूल ने 2019 से नॉन-डेयरी सेगमेंट में भी एंट्री की है। इसने जन्मय ब्रांड के तहत खाद्य तेल, आटा, मिल्क बेस्ड कार्बोनेटेड सेल्टजर और शहद भी लॉन्च किया है। इसके अलावा पोटेटो स्नैक्स और फ्रोजन फूड में भी आगे बढ़ रही है।
अमूल रिटेल काउंटर को देश भर में लगातार बढ़ा रहा है
पिछले दस सालों का अमूल का सेल्स टर्नओवर
अमूल और उससे जुड़े 18 डिस्ट्रिक्ट को-ऑपरेटिव मिल्क प्रोड्यूसर्स का संयुक्त टर्नओवर 53,000 करोड़ रुपए को पार कर चुका है। 2021-22 में संयुक्त रूप से 63,000 करोड़ रुपए के टर्नओवर की उम्मीद है।
अमूल से जुड़े अन्य तथ्य
- अमूल के पिरामिड मॉडल में सबसे नीचे मिल्क प्रड्यूसर्स आते हैं। खर्च होने वाले हर एक रुपए में से करीब 86 पैसे उसके मेंबर को जाते हैं और को-ऑपरेटिव बिजनेस चलाने के लिए 14 पैसे रखे जाते हैं। क्वांटिटी ज्यादा होने से ये रकम बहुत बड़ी हो जाती है।
- डिस्ट्रिक्ट मिल्क यूनियन का प्रमुख चेयरमैन होता है जो हर महीने मीटिंग करता है। यहां ये लोग को-ऑपरेटिव बिजनेस का जायजा लेते हैं। इसमें एक्सपेंशन प्लान, नई मशीनरी खरीदने और सदस्यों को बोनस देने जैसे मुद्दों पर चर्चा होती है।
- प्रोडक्टिविटी में सुधार लाने के लिए मवेशियों की सेहत का ध्यान रखा जाना भी जरूरी है। इसलिए, को-ऑपरेटिव मेंबर को मुफ्त ट्रेनिंग दी जाती है। इसमें मवेशियों की देख-रेख कैसे करें और अन्य चीजें बताई जाती है। ट्रेनिंग प्रोग्राम से किसानों की बड़ी मदद होती है।
- मवेशियों को दिन में तीन बार चारा और न्यूट्रिएंट्स दिया जाता है। यहां कैटल फीड प्लांट लगाए गए हैं। प्रोटीन, फैट, मिनरल को मिलाकर मवेशियों के लिए चारा बनता है। चारे बनाने वाले प्लांट की मशीनरी को डेनमार्क से इंपोर्ट किया गया है।
- किसानों के लिए सुपर स्पेशलिटी हॉस्पिटल की भी सुविधा है। को-ऑपरेटिव नए इक्विपमेंट खरीदने के लिए किसानों को सब्सिडी देती है। जैसे दूध निकालने वाली ऑटोमेटिक मशीन 40,000 की आती है। सब्सिडी से इसका दाम आधा हो जाता है।
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