फीफा में लैटिन अमेरिका और यूरोप की बादशाहत: एशिया-अफ्रीका की टीमों ने कभी नहीं जीती ट्रॉफी, सेमी तक पहुंचना भी मुश्किल
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स्पोर्ट्स डेस्क2 मिनट पहले
फीफा वर्ल्ड कप की शुरुआत 1930 में हुई। तब से आज तक या तो लैटिन अमेरिका या फिर यूरोप की किसी टीम ने ये टूर्नामेंट जीता। ब्राजील 5 तो जर्मनी और इटली 4-4 बार फीफा वर्ल्ड कप जीत चुके हैं। फ्रांस और उरुग्वे ने 2-2 के अलावा इंग्लैंड और स्पेन ने 1-1 बार यह ट्रॉफी जीती।
ये सभी टीमें या तो लैटिन अमेरिका से हैं या यूरोप से। जब से एशिया और अफ्रीका की टीमों ने वर्ल्ड कप में हिस्सा लिया, ये टीमें खिताब जीतने में नाकामयाब रहीं। वो भी तब जब यूरोप से करीब 2 करोड़ ज्यादा लोग एशिया में फुटबॉल खेलते हैं। ये महज इत्तेफाक तो नहीं हो सकता। तो फिर वो क्या वजहें हैं, जिनके चलते एशिया या अफ्रीका की टीमें विजेता नहीं बन सकती? आज इस खबर में जानेंगे। इससे पहले ग्राफिक्स में देखिए अब तक के फीफा वर्ल्ड कप की विजेता टीमें…
एशियाई टीम क्यों नहीं जीतती वर्ल्ड कप
वन गोल नाम की एक संस्था ने अपनी ‘फ्यूलिंग एशियाज फुटबॉल फॉर द फ्यूचर’ रिपोर्ट में बताया कि एशिया में लड़के-लड़कियां दूसरे क्षेत्रों के खिलाड़ियों की बराबरी इसलिए नहीं कर पाते, क्योंकि उनमें बचपन से पोषण, विटामिन, मिनरल्स, प्रोटीन, फैट और एनर्जी जैसे तत्वों की कमी होती है।
इस रिपोर्ट में सामने आया कि एशिया में करीब 20 करोड़ से ज्यादा बच्चे कुपोषित हैं। इस लिहाज से एशिया में कुपोषित बच्चों की संख्या बाकी महाद्वीपों की तुलना में सबसे ज्यादा है। दुनिया में कुल कुपोषित बच्चों की संख्या का दो-तिहाई हिस्सा (16 करोड़ 50 लाख में से 10 करोड़) एशिया में है। एशिया में करीब 1 करोड़ 65 लाख लोग मोटापे से जूझ रहे हैं। साल 2025 तक ये संख्या ढाई करोड़ हो सकती है। आसान भाषा में कहें तो खिलाड़ियों की फिटनेस ये टूर्नामेंट ना जीत पाने का एक मुख्य कारण है।
लीडरशिप की कमी
फीफा वर्ल्ड कप 2014 के दौरान जब कोरियन कोच होंग म्यूंग बो PSV फुटबॉल क्लब में मिडफील्डर के तौर पर खेल चुके पार्क जी-सुंग से मिलने गए तो वो इसलिए नहीं कि वो की वो अगले स्टेज के लिए विरोधी टीम के बारे में जानना चाह रहे थे, बल्कि इसलिए कि वो जी-सुंग को इंटरनेशनल रिटायरमेंट का फैसला बदलने के लिए मना सकें। होंग ने खुद माना कि कोरिया की युवा टीम को एक एक्सपीरिएंस्ड मेंटर की जरूरत है।
साफ है कि एशिया की टीम में अनुभवी नेतृत्व की कमी है। यही कमी इन टीमों के खिताब जीतने के रास्ते में एक रोड़ा बन गई है।
कोचिंग के दौरान गलत फैसले
इटली के अल्बर्टो जाचेरोनी 2011 से 2014 तक जापान फुटबॉल टीम के मैनेजर रहे। फिर भी टीम कुछ खास प्रदर्शन नहीं कर सकी। 2014 में आइवरी कोस्ट के खिलाफ जापान इस तरह खेली जैसे टीम को जीतने की कोई इच्छा ही नहीं है और वो पहले ही हार मान चुके हैं। ग्रीस के खिलाफ भी टीम का अटैक प्रिडिक्टेबल था। इसके बाद अफ्रीकन टीम के खिलाफ उम्रदराज खिलाड़ी यासुहितो एंडो को इंट्रोड्यूस करने और डिफेंस के दौरान गलतियां करने के बावजूद यासुयुकी कोन्नो को टीम में बनाए रखने के फैसले को लेकर अल्बर्टो की खूब आलोचना हुई।
कोरियन कोच होंग टीम के कमजोर डिफेंस से डील नहीं कर पाए। उनका दूसरा गलत कदम था गोल ना कर पा रहे स्ट्राइकर पार्क चू-यंग को टीम में बनाए रखना। बाद में उन्हें मीडिया और फैंस की नाराजगी भी झेलनी पड़ी।
एशियन टीम के कोच की कुछ गलितयों का खामियाजा टीम को चुकाना पड़ा और उनकी खिताब से दूरी बढ़ गई।
जज्बे की कमी
ये जीतने का जज्बा ही था जिसने उरुग्वे जैसे छोटे देश की टीम को भी 2 बार वर्ल्ड कप ट्रॉफी दिलाई। एशिया की टीमों में इस जूनून और जज्बे की कमी दिखाई देती है। ये अच्छी बात है कि टीमें अपने खेल पर फोकस करती हैं। लेकिन टीम का एटिट्यूड भी ट्रॉफी जीतने के लिहाज से मायने रखता है। उनके फीफा वर्ल्ड कप ट्रॉफी ना जीत पाने के पीछे ये भी एक बड़ा कारण हो सकता है।
राजनीति
एशियन देशों की फुटबॉल टीमों में पैशन देखने को मिलता है। लेकिन राजनीतिक सहयोग और फंड की कमी रहती है और इसका टीम की परफॉर्मेंस पर खासा असर पड़ता है। एशिया की फुटबॉल टीमों के चैंपियन ना बन पाने के पीछे सुविधाओं की कमी भी एक मुख्य कारण है।
अफ्रीका की टीमों के चैंपियन ना बनने की वजहें जानने से पहले देखिए इस वर्ल्ड कप में कितनी टीमें हिस्सा ले रही हैं…
पैसों की कमी और खराब स्ट्रक्चर
अफ्रीका महाद्वीप में गरीबी ज्यादा है। लिहाजा, फाइनेंस की दिक्कत लाजमी है। अफ्रीका की फुटबॉल टीमों में अक्सर खिलाड़ियों, कोच और फुटबॉल एसोसिएशन के बीच सैलरी और बोनस के विवाद सामने आते रहते हैं। ऐसा आमतौर पर बड़े टूर्नामेंट के पहले या उसके दौरान देखा जाता है। 2014 के वर्ल्ड कप के दौरान कैमरून के खिलाड़ियों ने तो ब्राजील जाने से ही मना कर दिया। उनकी शर्त थी कि उन्हें बोनस दिया जाए। ये टीम ग्रुप स्टेज में बाहर हो गई थी।
घाना के खिलाड़ियों ने इससे एक कदम और आगे जाकर ट्रेनिंग और फिर पुर्तगाल के खिलाफ महत्वपूर्ण फाइनल ग्रुप स्टेज गेम का बहिष्कार करने की धमकी दी। उनकी मांग थी कि घाना फुटबॉल एसोसिएशन पहले सैलरी दे। घाना इस मैच में पुर्तगाल से हार गई। ये कुछ उदाहरण है जब फाइनेंस के चलते टीमों के प्रदर्शन पर असर पड़ा हो।
इसके अलावा अफ्रीकन फुटबॉल टीमों में स्ट्रक्चर की कमी भी है। अन्य देशों से तुलना की जाए तो अफ्रीकी टीमों में ऐसे खिलाड़ियों की कमी दिखती है, जिन्होंने किसी बड़े टूर्नामेंट में हिस्सा लिया हो। यही वजह है कि टीम में आत्मविश्वास की कमी रहती है। ऐसे में बड़े टूर्नामेंट में बड़ी टीमों के सामने अफ्रीका की फुटबॉल टीमें हार मान जाती हैं।
करप्शन और एडमिनिस्ट्रेशन की अनदेखी
अफ्रीकन फुटबॉल टीमों की सबसे बड़ी परेशानी है एडमिनिस्ट्रेशन का लापरवाह रवैया। अफ्रीका के फुटबॉल एसोसिएशन्स के कई लोग या तो करप्शन करते हैं या फिर अपने रोल का ही अंदाजा नहीं होता। बड़े पदों पर बैठे कई लोग फुटबॉल के बारे में कुछ नहीं जानते, वो सिर्फ इसलिए वहां जमे रहते हैं ताकि फायदा मिलता रहे।
इन बातों का असर टीम सिलेक्शन और फंड डिस्ट्रीब्यूशन पर पड़ता है। इसके बाद खिलाड़ियों की प्रैक्टिस और परफॉर्मेंस प्रभावित होते हैं। यही कुछ अहम वजहें हैं जिनके चलते एशिया की तरह अफ्रीकन फुटबॉल टीमें भी वर्ल्ड कप जीतने में नाकामयाब रहीं।
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