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पन्ना के बोर्ड-स्केटिंग पार्क से अब नहीं निकल रहे ‘कोहिनूर’: लगातार 3 नेशनल कॉम्प्टीशिन में  31 मेडल जीते, चौथे में खाली हाथ लौटे

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पन्ना4 मिनट पहले

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पन्ना से 7 KM दूर जंगल में स्थित जनवार गांव का बोर्ड स्टेकिंग पार्ट उजड़ रहा है। यहां 80 खिलाड़ी निकल चुके हैं।

हीरों के शहर के नाम से मशहूर पन्ना के स्केटर खेल जगत में अपनी चमक खो रहे हैं। कारण, सरकार की अनदेखी है। दरअसल, पन्ना को खेल जगत में बोर्ड स्केटिंग के लिए भी जाना जाता है। यहां देश का पहला आउटडोर बोर्ड स्केटिंग पार्क है। इस पार्क से निकले आदिवासी खिलाड़ियों ने शुरुआती 3 नेशनल प्रतियोगितओं में 31 मेडल जीतकर सनसनी मचा दी थी, लेकिन पिछली दो राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में यहां के खिलाड़ी खाली हाथ लौटे। और तो और अहमदाबाद नेशनल गेम्स में पैसों के अभाव के चलते यहां से एक खिलाड़ी ही भागीदारी कर सकी थी।

पहले तीन नेशनल में मेडल की छड़ी लगाने वाले यहां के स्केटर एकाएक पिछड़ने क्यों लगे। यह जानने भास्कर की टीम पन्ना शहर से 7 किलोमीटर दूर जनवार गांव पहुंची। जहां हमने पाया…

यहां लाखों में बने 2 स्केटिंग पार्क, करीब 80 खिलाड़ी, लेकिन कोच नहीं
हमने पाया कि पन्ना टाइगर रिजर्व के बीच स्थित इस गांव में 2 बोर्ड स्केटिंग एरीना हैं। यहां सीखने करने के लिए बच्चे भी हैं, लेकिन उन्हें सिखाने वाला कोई ट्रेनर नहीं हैं। मेंटर और कोच के आभाव में यह पार्क अब वीरान पड़ा है। वर्तमान में यहां कोई ट्रेनिंग नहीं हो रही है। कभी कभार सीनियर प्लेयर आशा आदिवासी और अरुण कुमार गांव के छोटे बच्चों को स्केटिंग की बेसिक सिखाने चले जाते हैं। हमने पार्क उजड़ने के कारण इंटरनेशनल स्केटर अरुण कुमार और आशा आदिवासी से जाने…ये दोनों इंटरनेशनल टूर्नामेंट में भारत का प्रतिनिधित्व कर चुके हैं।

ओलिंपिक में शामिल हाेने के बाद गेम में कॉम्प्टीशन बढ़ा
‘पिछले नेशनल में उतनी तैयारी नहीं थी, इसलिए मेडल नहीं आए। इस खेल के ओलिंपिक गेम्स में जुड़ने के बाद कॉम्प्टीशन लेवल भी बढ़ा है। पार्क की फाउंडर के जाने के बाद हमारे बच्चों को उतना सपोर्ट भी नहीं मिला। सरकारों ने ध्यान नहीं दिया, जिससे पार्क उजड़ता चला गया।’
– अरुण कुमार, इंटरनेशनल स्केटर

फाउंडर मैडम की कमी खली रही
‘हम पूरी तैयारी के साथ नहीं गए और कोविड में तैयारियां बिल्कुल नहीं हो सकी है। फाउंडर मैडम की कमी भी खली, क्योंकि वे पहले सारी चीजें देख लेती थी, अब खेलने जाने के लिए फंड भी रेज हमी को करना पड़ता है। इसी के चलते दिक्कत हो रही है, क्योंकि उतना सपोर्ट नहीं मिल पा रहा। फिर भी प्रयास में लगे हुए हैं। उम्मीद करती हूं कि अगले नेशनल में हम बेहतर कर पाएं।’
– आशा आदिवासी, इंटरनेशनल स्केटर

अब 3 सवाल…

  • क्या है बोर्ड स्केटिंग आमतौर पर यह खेल यूरोपीय देशों में खेला जाता है, लेकिन अब भारत में भी बढ़ रहा है। इस खेल की शुरुआत USA में 1950 में हुई है।
  • कैसे खेला जाता है यह खेल स्पीड और बैलेंस के इस खेल में स्केटर को बोर्ड में स्केटिंग करते हुए अलग-अलग हर्डल्स पार करने होते हैं। एक्यूरेसी और डिफिकल्टी लेवल के आधार पर उन्हें अंक दिए जाते हैं और रैंकिंग के आधार पर मेडल तय होते हैं। इसमें स्केटर को पार्क में अपने स्टेप करने होते हैं। इवेंट के दौरान हर खिलाड़ी को बराबर टाइम मिलता है। स्केटर को उसी टाइम में अपने स्टंट करने होते हैं।
  • इस खेल पर इतनी चर्चा क्यों…? इस खेल को 2020 के ओलिंपिक गेम्स में जोड़ा गया था। तब जापान की 19 साल यूतो होरीगोम ने गोल्ड मेडल जीता था। अगले साल होने जा रहे पेरिस ओलिंपिक में भी इस खेल के 12 मेडल दांव पर होंगे। इनके दो इवेंट पार्क और स्ट्रीट को ही ओलिंपिक खेलों का हिस्सा बनाया गया है। इन इवेंट की महिला और पुरुष कैटेगरी में 3-3 मेडल दांव पर होते हैं।

टोक्यो ओलिंपिक में 19 साल के लड़के ने जीता था गोल्ड
पिछले ओलिपिंक गेम्स में मेजबान जापान को इस खेल का फायदा मिला था। जापान ने इस खेल के 5 ओलिंपिक मेडल जीते थे। इसमें तीन गोल्ड, एक सिल्वर और एक ब्रॉन्ज शामिल था। तब 19 साल के लड़के ने ओलिंपिक गेम्स का गोल्ड जीतकर सनसनी मचा दी थी।

जनवार के बच्चों में भी संभावनाएं है यहां के स्टकेटर्स ने इस बात को साबित किया है…

जनवार के स्केटर्स ने पहले ही नेशनल में जीते 18 मेडल
घने जंगलों के बीच बसे गोंड आदिवासियों के इस गांव में बोर्ड स्केटिंग पार्क की शुरुआत जर्मन महिला उलरिक रेनहार्ड (एक जर्मन प्रकाशक, लेखक, डिजिटल खानाबदोश और भविष्यवादी) ने 2014 में की थी। कुछ ही साल में इस खेल को यहां के बच्चों अपना लिया। यहां के आदिवासी स्केटर्स ने पहले नेशनल टूर्नामेंट में 18 मेडल जीतकर स्केटिंग जगत में सनसनी मचा दी थी। तब रेनहार्ट ने इन बच्चों को प्रोफेशनल ट्रेनिंग देना शुरू किया। अगले दो टूर्नामेंट में भी पन्ना के खिलाड़ियों ने भर-भर के मेडल जीते।

सोशल चेंज के लिए शुरू हुआ खेल यहां के युवाओं के जीवन का हिस्सा बन गया। इस गांव का बच्चा-बच्चा गलियों में लकड़ी के फट्‌टों में पहिए लगाकर बोर्ड स्केटिंग करने लगा। रेनहार्ड इन बच्चों को स्केटिंग के साथ-साथ एजुकेशन भी दे रही थीं, लेकिन कोविड़ के कारण रेनहार्ट को वीसा नहीं मिला। ऐसे में वे कोविड के बाद भारत नहीं लौट सकीं और इन खिलाड़ियों की देखरेख करने वाला कोई नहीं रहा।

तो 2028 और 2032 के मेडलिस्ट निकल सकते हैं
यदि राज्य और केंद्रीय खेल मंत्रालय इस गांव के पार्क का सही उपयोग करे, तो इन बच्चों से 2028 और 2032 के मेडलिस्ट तैयार किए जा सकते हैं। इसके लिए सरकारों को यहां से टैलेंट सर्च कर प्रतिभावान बच्चों को व्यवस्थित ट्रेनिंग देने की जरूरत है। यहां एक कोच नियुक्त कर बोर्ड स्केटिंग की अकादमी की संचालित की जा सकती है।

पेरिस के ओलिंपिक गेम्स में इस खेल के एक दर्जन मेडल दांव पर हैं।

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