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संतोष ट्रॉफी फाइनल: बंगाल के कप्तान मोनोतोश कभी दूसरों के फटे जूते पहनकर करते थे फुटबॉल प्रैक्टिस, आज बंगाल को 33वां खिताब दिलाने उतरेंगे

संतोष ट्रॉफी फाइनल: बंगाल के कप्तान मोनोतोश कभी दूसरों के फटे जूते पहनकर करते थे फुटबॉल प्रैक्टिस, आज बंगाल को 33वां खिताब दिलाने उतरेंगे
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  • Bengal Captain Monotosh Used To Practice Football By Wearing Torn Shoes Of Others, Today He Will Land To Win The 33rd Title For Bengal.

हुगलीकुछ ही क्षण पहलेलेखक: जयती मजूमदार साहा

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‘कमल कीचड़ में ही खिलता है’ – इस कहावत को चरितार्थ करके दिखलाया है हुगली की चूचूरा के एक नंबर कापासडोंगा इलाके के सीतलातला में एक 9 फुट लंबी और 5 फुट चौड़ी सिर छुपाने वाले झोपड़ी में पले बढ़े मोनोतोश चकलादर ने। अपनी प्रतिभा, मेहनत और लगन के बदौलत मोनोतोश आज संतोष ट्रॉफी फाइनल खेलने वाली बंगाल टीम के कप्तान हैं।

परिवार की आर्थिक प्रतिकूलता का आलम यह था कि इस होनहार फुटबॉलर को बचपन में प्रैक्टिस के लिए बूट तक खरीदने तक के पैसे नहीं थे। वे दान में मिले फटे बूट्स से प्रैक्टिस करते थे, लेकिन अपने मजबूत इरादों और कड़ी मेहनत के बूते उन्होंने कच्ची बस्ती की झोपड़ी से भारतीय फुटबॉल के शिखर तक पहुंचने में अर्श से फर्श तक का सफर तय किया।

हुगली की इसी झोपड़ी में अपने परिवार के साथ रहते हैं बंगाल की फुटबॉल टीम के कप्तान मोनोतोश चकलादर।

राजमिस्त्री का काम करते हैं पिता, आज उनके बेटे से पूरे बंगाल को हैं उम्मीदें

बेहद गरीब परिवार में जन्मे मोनोतोश चकलादर के पिता मंटू चकलादर राजमिस्त्री का काम करते हैं, जबकि उनकी मां नीला एक साधारण गृहणी हैं। घर के टूटे-फूटे दरवाजे से अंदर दाखिल होते हैं तो कोने में दीवार से सटी एक चारपाई है। उसके बगल में भगवान कृष्ण की मूर्ति रखी हुई है और भगवान की मूर्ति के पास मोनोतोश के पिता ने अपने घर के चिराग की भी तस्वीर लगा रखी है।

पूरे बंगाल की तरह मोनोतोश के माता-पिता भी यह स्वप्न देख रहे हैं कि उनके बेटे के सफल नेतृत्व में एक बार फिर बंगाल संतोष ट्रॉफी फाइनल में जीत का परचम लहराकर भारत में श्रेष्ठ होने का गौरव हासिल करे।

बचपन से ही बड़ा फुटबॉलर बनने के गुण, गोलकीपिंग छोड़कर मैदान के हर हिस्से में मोनोतोश को महारत

हुगली के चूचूरा के बानीचक्र फुटबॉल क्लब में कोच व क्लब सेक्रेटरी गोपी चक्रवर्ती ने बताया कि मोनोतोश जन्मजात प्रतिभा का धनी है। बचपन से ही एक बड़े फुटबॉलर बनने का टेलेंट उसमें मौजूद था। तकरीबन 10 साल पहले उनकी नजर पहली बार उस पर पड़ी और धीरे-धीरे वो उनके क्लब में बड़ी लगन और निष्ठा के साथ प्रैक्टिस करता चला गया।

हुगली के चूचूरा के इसी मैदान में फुटबॉल खेलते-खेलते अपने पैरों की जादूगरी से मोनोतोश चकलादर ने बंगाल ही नहीं पूरे भारतवर्ष को अपने प्रतिभा का लोहा मनवा लिया है।

बड़े प्लेटफार्म पर पहली बार उसे कोलकाता के यूनाइटेड एथलेटिक क्लब में खेलने का मौका मिला। उसके बाद उसने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। यूनाइटेड एथलेटिक क्लब के बाद उसने मोहम्मडन स्पोर्टिंग क्लब, पीयरलेस क्लब ऑफ कोलकाता और फिर कोलकाता के नामी फुटबॉल क्लबों में शुमार ईस्ट बंगाल क्लब के लिए खेलना शुरू कर दिया। गोपी ने बताया कि मोनोतोश किसी भी फुटबॉल टीम के डिफेंस के लिए एक मजबूत दीवार के रूप में खेलता है। गोलकीपर को छोड़कर फुटबॉल के मैदान के हर पोजीशन पर खेलने में उसे महारत हासिल है।

टेलेंट इतना कि कोच खुद घर से ले जाकर प्रैक्टिस करवाते थे

मोनोतोश के पिता मंटू चकलादार बताते हैं कि बचपन के दिनों में आर्थिक अभाव के कारण वे अपने बेटे को जूते तक खरीदने के पैसे नहीं दे पाते थे। दूसरों से दान में मिले फटे हुए जूतों से वो प्रैक्टिस करता था। मंटू के अनुसार बचपन से ही उनके बेटे को कोच ने भरपूर सहयोग दिया। बाकायदा उसे घर से ले जाकर प्रैक्टिस करवाना और घर वापस छोड़ने का काम भी मोनोतोश के कोच ने ही किया।

फुटबॉल के साथ-साथ बेटे के लिए सरकारी नौकरी चाहती हैं मां ताकि सुधर जाएं घर के हालात

अब मोनोतोश को दान में मिले जूतों से प्रैक्टिस करने की जरूरत तो नहीं है, पर उनकी मां चाहती हैं कि बेटे को एक सरकारी नौकरी मिल जाए जिससे घर के हालात सुधर सकें।

मां नीला चकलादर ने बताया कि आर्थिक अभाव के कारण उनके यहां रहने के लिए झोपड़ी के सिवा कोई अच्छा घर नहीं है। उनके घर कोई मेहमान आता है तो उन्हें घर के बाहर दरवाजे पर ही इंतजार करवाना पड़ता है। उनकी सरकार से गुजारिश है कि उनके बेटे को एक नौकरी मिल जाए जिससे कि उनके पास अपना एक मकान हो और उनका बेटा फुटबॉल के खेल में आगे बढ़कर और नाम कमाए।

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